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ग़ज़ल
'शौक़' सा बंदा-ए-आज़ाद ज़माने में कहाँ
आज सुनते हैं कि वो याद-ए-ख़ुदा करते हैं
पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़
ग़ज़ल
ऐ 'आज़ाद' यही निकला सदियों की मसाफ़त का हासिल
एक उदासी के आलम का छा जाना गलियों गलियों