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ग़ज़ल
जंग में परवर-दिगार-ए-शब का क्या क़िस्सा हुआ
लश्कर-ए-शब सुब्ह की सरहद पे क्यूँ पसपा हुआ
जमुना प्रसाद राही
ग़ज़ल
इधर भी सूरत-ए-ज़ाहिद कोई निगाह-ए-करम
कि तेरे बंदों में परवर-दिगार हम भी हैं
नवाब उमराव बहादूर दिलेर
ग़ज़ल
ख़ुदा है बंदा बंदा है ख़ुदा चश्म-ए-यक़ीं सो देक
भी दोनों ग़ैर यक-ए-दीगर यही इरफ़ान-ए-कामिल है
क़ुर्बी वेलोरी
ग़ज़ल
दुख़्तर-ए-रज़ से उलझते हो ये क्या हज़रत-ए-शैख़
बंदा-परवर ये बुढ़ापे में लड़कपन कैसा
नातिक़ गुलावठी
ग़ज़ल
लग गए मुझ में भला कौन से सुरख़ाब के पर
लोग क्यों मुझ को ब-अंदाज़-ए-दिगर देखते हैं