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ग़ज़ल
दिल-ए-'यकरू' है तिरा पाए बंधिया काकुल का
याद रख उस कूँ सदा मत कभू निस्यान में आ
अब्दुल वहाब यकरू
ग़ज़ल
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बस-कि रोका मैं ने और सीने में उभरीं पै-ब-पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरेबाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क्या क्या उलझता है तिरी ज़ुल्फ़ों के तार से
बख़िया-तलब है सीना-ए-सद-चाक शाना क्या
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं
इस बगिया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
'सौदा' जो उन ने बाँधा ज़ुल्फ़ों में दिल सज़ा है
शेरों में उस के तू ने क्यूँ ख़त्त-ओ-ख़ाल बाँधे