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ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
ग़ज़ल और क़ाफ़िए को बदल मैं सुनाऊँ यारों को बर-महल
हुआ मुख़्तसर न ब-यक ग़ज़ल कि बड़ा फ़साना-ए-यार था
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
मेरे नाले थे शब-ए-फ़ुर्क़त में कितने बर-महल
उन के कानों में मगर इक शोर-ए-बे-हंगाम था