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ग़ज़ल
हमें नायाफ़्त लम्हों से मफ़र होता न घर लुटता
कि पहली बर्फ़-बारी में कहाँ ज़ाद-ए-सफ़र लुटता
ख़ुमार कुरैशी
ग़ज़ल
चली है अब के बरस वो हवा-ए-शिद्दत-ए-बर्फ़
दयार-ए-दिल की तरफ़ कोई क़ाफ़िला न गया
सज्जाद बाक़र रिज़वी
ग़ज़ल
जो मंज़िलें दिखाई थीं वो मुम्किनात में से थीं
पर अपनी हिम्मतों की बर्फ़ में शिगाफ़ क्या करें
हुमैरा रहमान
ग़ज़ल
अक्सर मिरे चूल्हे में रहा बर्फ़ का डेरा
लेकिन किसी रिश्ते से निवाला नहीं माँगा