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ग़ज़ल
जाने बरगश्ता है क्यूँ मुझ से ज़माने की हवा
अपने दामन की हवा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
''हरचे बादा-बाद'' के नारों से दुनिया काँप उठी
'इश्क़ के इतना कोई बरगश्ता क़िस्मत भी तो हो
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
बरगश्ता-नसीब का यूँ होना सोना भी तो इक करवट सोना
कब तक ये जुदाई का रोना तुम और कहीं हम और कहीं
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
नुक्ता-चीनी पर मिरी तुम इतने बरगश्ता न हो
कह दिया जो कुछ भी दिल में था मगर साज़िश न की
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
बख़्त बरगश्ता वो नाराज़ ज़माना दुश्मन
कोई मेरा है न ऐ 'हिज्र' किसी का मैं हूँ
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
ग़ज़ल
हिक़ारत से जिसे ठुकरा दिया बरगश्ता शो'लों ने
वही परवाना-ए-बे-कस फ़रोग़-ए-शम-ए-महफ़िल था
शौकत थानवी
ग़ज़ल
हम ने उतने ही सर-ए-राह जलाए हैं चराग़
जितनी बरगश्ता ज़माने की हवा हम से हुई