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ग़ज़ल
इज्ज़ से और बढ़ गई बरहमी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त
अब वो करे इलाज-ए-दोस्त जिस की समझ में आ सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल
यहाँ वाबस्तगी वाँ बरहमी क्या जानिए क्यूँ है
न हम अपनी नज़र समझे न हम उन की अदा समझे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बरहमी हल्क़ा-बगोशों की उन्हें मंज़ूर है
फूट डलवाती हैं लाखों में तुम्हारी चूड़ियाँ