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ग़ज़ल
मैं तो बर्ज़ख़ के अँधेरों में जलाऊँगा चराग़
मैं नहीं वो कि जो मौत आई तो मर जाऊँगा
प्रीतपाल सिंह बेताब
ग़ज़ल
उश्शाक़ जो तसव्वुर-ए-बर्ज़ख़ के हो गए
आती है दम-ब-दम ये उन्हीं को सदा-ए-क़ल्ब
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
होने और न होने का इक बर्ज़ख़ है हम जिस में हैं
जिस में शाम घुली रहती है ऐसी सहर में रहते हैं
शबनम शकील
ग़ज़ल
कटी एक उम्र-ए-फ़ुर्क़त सर-ए-बर्ज़ख़-ए-मोहब्बत
कि चला न जा रहा था दिल-ए-ना-तवाँ से आगे