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ग़ज़ल
उमीदें आती हैं आ आ के दिल से निकली जाती हैं
ये वो बस्ती है जो बस बस के ख़ाली होती जाती है
मेला राम वफ़ा
ग़ज़ल
आधी रात आ गई बस बस दिल-ए-बेताब सँभल
हम समझते हैं जो इस कर्ब का हासिल होगा
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का
लब-हा-ए-मुबारक से इक शोर था ''बस बस'' का
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
अगर आहिस्ता बोलूँ ना-तवानी कहती है बस बस
सदा-ए-जुम्बिश-ए-लब देते ही सदमे फ़ुग़ाँ हो कर