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ग़ज़ल
मैं भी बे-अंत हूँ और तू भी है गहरा सहरा
या ठहर मुझ में या ख़ुद में मुझे ठहरा सहरा
इफ़्तिख़ार मुग़ल
ग़ज़ल
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बड़ी बे-अंत हिम्मत चाहिए राह-ए-मोहब्बत में
ये ज़ाहिर यूँ कोई मुश्किल नहीं फ़रियाद हो जाना
ज़फ़र मेहदी
ग़ज़ल
मुर्दा नारे लगाने वाले ज़िंदा गोश्त जला सकते हैं
इस बे-अंत हुजूम को ख़ुद से ज़ियादा डरने मत देना