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ग़ज़ल
हमेशा जिस से पहुँचता रहे था दिल को अलम
हज़ार शुक्र कि वो दर्द-ए-बे-दवा न रहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल आसूदा न पाया क्या ख़िज़ाँ और क्या बहार इस को
मोहब्बत में रखे है तुर्फ़ा दर्द-ए-बे-दवा बुलबुल
हसरत अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हो अगर मक़्सद में नाकामी तो कर सकते हैं सब्र
दर्द-ए-ख़ुद-कामी को लेकिन बे-दवा पाते हैं हम