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ग़ज़ल
कहो तुम किस सबब रूठे हो प्यारे बे-गुनह हम सीं
चुराने क्यूँ लगी हैं यूँ तिरी अँखियाँ निगह हम सीं
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
न मारा जान कर बे-जुर्म ग़ाफ़िल तेरी गर्दन पर
रहा मानिंद-ए-ख़ून-ए-बे-गुनह हक़ आश्नाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बता जाएज़ है किस मज़हब में ख़ून-ए-बे-गुनह ज़ालिम
तू हिन्दू है मुसलमाँ है यहूदी है कि तरसा है
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
तुम ने ख़ुद नाकाम रख के उस की हिम्मत की थी पस्त
आरज़ू-ए-बे-गुनह पर मुफ़्त का इल्ज़ाम था
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
यहाँ की ख़ाक ख़ून-ए-बे-गुनह का रंग लाती है
ज़रा दामन बचा कर आइए गोर-ए-ग़रीबाँ में
सफ़दर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
बता जाएज़ है किस मज़हब में ख़ून-ए-बे-गुनाह ज़ालिम
तू हिन्दू है मुसलमाँ है यहूदी है कि तरसा है
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
क़रार इक दम नहीं आता है ख़ून-ए-बे-गुनह पी कर
कि अब तो ख़ुद ब-ख़ुद तलवार रह रह कर उगलती है