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ग़ज़ल
बे-रह-ओ-बे-रहनुमा गर्म-ए-सफ़र है क़ाफ़िला
फ़ाएदा क्या इस तरह की सई-ए-ला-हासिल में है
अमजद अली ग़ज़नवी
ग़ज़ल
कली को कर ही दिया बे-हिजाब ऐ 'ख़ावर'
नसीम-ए-सुब्ह की बे-रह-रवी को क्या कहिए
खुर्शीद खावर अमरोहवी
ग़ज़ल
अनजाने में जो बे-राह चले वो राह पे आ सकता है मगर
बे-राह चले जो दानिस्ता बस उस का सँभलना मुश्किल है