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ग़ज़ल
कुछ मोहब्बत में अजब शेव-ए-दिल-दार रहा
मुझ से इंकार रहा ग़ैर से इक़रार रहा
हिज्र नाज़िम अली ख़ान
ग़ज़ल
सदमा-ए-बे-रहमी-ए-साक़ी न उट्ठा बज़्म में
जी भर आया देख कर ख़ाली सुबू रोने लगा
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल
दिल शाहजहाँपुरी
ग़ज़ल
हाए बे-रहमी-ए-सय्याद सताने को मिरे
नोच कर कहता है क्या इन को ही पर कहते हैं
मुंशी बनवारी लाल शोला
ग़ज़ल
फँस चुकी दाम में सय्याद के जब बुलबुल-ए-ज़ार
रोना क्या फ़ाएदा बे-रहमी-ए-सय्याद से अब
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
पूछते क्या हो 'शगुफ़्ता' चमन-ए-आलम में
क्या कहूँ मैं कि है बे-रहमी-ए-ख़ूबाँ क्या क्या
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल
ज़मीन-ए-कूचा-ए-दिल-दार ने क्या पाँव पकड़े हैं
मिली दीवानगान-ए-इश्क़ को ज़ंजीर मिट्टी की