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ग़ज़ल
बे-तह मिरी नज़र है कि ख़ुद कम-नज़र हूँ मैं
अज़-बस इसी ख़याल से ज़ेर-ओ-ज़बर हूँ मैं
अमजद अशरफ़ मल्ला
ग़ज़ल
इस फ़न में कोई बे-तह क्या हो मिरा मुआरिज़
अव्वल तो मैं सनद हूँ फिर ये मिरी ज़बाँ है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये फ़न्न-ए-इश्क़ है आवे उसे तीनत में जिस की हो
तू ज़ाहिद-ए-पीर-ए-ना-बालिग़ है बे तह तुझ को क्या आवे