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ग़ज़ल
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मानिंद-ए-ख़ामा तेरी ज़बाँ पर है हर्फ़-ए-ग़ैर
बेगाना शय पे नाज़िश-ए-बेजा भी छोड़ दे
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
निगह पैदा कर ऐ ग़ाफ़िल तजल्ली ऐन-ए-फ़ितरत है
कि अपनी मौज से बेगाना रह सकता नहीं दरिया
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
गर्द थी बेगाना-गर्दी की जो थी निगह मेरी ताहम
जब भी कोई सूरत बिछड़ी आँखों में नम-नाकी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
जहाँ की फितरत-ए-बेगाना में जो कैफ़-ए-ग़म भर दें
वही जीना समझते हैं वही मरना समझते हैं