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ग़ज़ल
क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना
जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
चमन से दूर रह के फूल कब शादाब रहता है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
तसल्ली को दिल-ए-बेताब की मेरी दम-ए-रुख़्सत
नई क़समें वो झूटी झूटी खाना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर'
ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे