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ग़ज़ल
मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शो'ला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
कोई शो'ला सा जो भड़क उठा कोई दर्द सा जो चमक उठा
मरे दर्द दिल का ये आरिज़ा भी पुराना हो कहीं यूँ न हो