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ग़ज़ल
'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है
घटा के भेस में मय-ख़ाने पर रहमत बरसती है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
बुलंदी चाहिए इंसान की फ़ितरत में पोशीदा
कोई हो भेस लेकिन शान-ए-सुल्तानी नहीं जाती
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो
इशरत-ए-वस्ल बने या ग़म-ए-हिज्राँ हो जाए