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ग़ज़ल
हुक्म बार-ए-मज्लिस अब 'जुरअत' को भी हो जाए जी
ये बिचारा कब से दरवाज़े पे है आया हुआ
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
तरन्नुम ही कुछ ऐसा था बिचारा क्या करे 'वाहिद'
कि हुल्लड़ और नारे बाज़ियाँ दोनों तरफ़ से हैं