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ग़ज़ल
ज़कात-ए-हुस्न दे ऐ जल्वा-ए-बीनिश कि मेहर-आसा
चराग़-ए-ख़ाना-ए-दर्वेश हो कासा गदाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
करे क्या साज़-ए-बीनिश वो शहीद-ए-दर्द-आगाही
जिसे मू-ए-दिमाग़-ए-बे-ख़ुदी ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गो कि औरों की हुईं सुरमे से आँखें रौशन
सुर्मा-ए-बीनिश-ए-साहिब-नज़राँ और ही है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सोहबत का असर साहब-ए-बीनिश को हो क्यूँकर
ऐनक हो अगर सब्ज़ न हो जाए हरी आँख
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
हम में कुछ अपनी जगह हैं दानिश-ओ-बीनिश से आरी
और बनने का ये आलम है कि फ़रज़ाने बने हैं
उरूज ज़ैदी बदायूनी
ग़ज़ल
कितना सच्चा है ये अहल-ए-दानिश-ओ-बीनिश का क़ौल
आदमी आज़ाद हो कर भी बड़ा मजबूर है
मंज़ूर-उल-हक़ नाज़िर
ग़ज़ल
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा