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ग़ज़ल
बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल
कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
उस का बहर-ए-हुस्न सरासर औज ओ मौज ओ तलातुम है
शौक़ की अपने निगाह जहाँ तक जावे बोस-ओ-कनार है आज
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बोस-ओ-कनार के लिए ये सब फ़रेब हैं
इज़हार-ए-पाक-बाज़ी-ओ-ज़ौक़-ए-नज़र ग़लत
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
दिल से निकले कहीं पा-बोसी-ए-क़ातिल की हवस
काश वो ख़ूँ को मिरे रंग-ए-हिना ही जाने
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
उस आईना-रू के वस्ल में भी मुश्ताक़-ए-बोस-ओ-कनार रहे
ऐ आलम-ए-हैरत तेरे सिवा ये भी न हुआ वो भी न हुआ
शाह नसीर
ग़ज़ल
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
गर हुक्म हो शुरूअ' करे अपना काम हिर्स
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
नक़्द-ए-दिल लेते हो हर एक का बे-बोस-ओ-कनार
आप के ध्यान में क्या मुफ़्त-बरी रहती है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
हो जहाँ जुम्बिश-ए-लब का भी न यारा ऐ वाए
मुँह कहाँ ये कि जो वाँ बोस-ओ-कनार आए नज़र