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आहें मुँह से मिरे निकलने दो

फ़ाख़िर लखनवी

आहें मुँह से मिरे निकलने दो

फ़ाख़िर लखनवी

MORE BYफ़ाख़िर लखनवी

    आहें मुँह से मिरे निकलने दो

    दर्द में करवटें बदलने दो

    क़फ़स-ए-जिस्म से निकलने दो

    मुर्ग़-ए-जाँ का भी दिल बहलने दो

    रोने वाले जहान के रोते हैं

    मेरे आँसू भी कुछ निकलने दो

    ग़ुस्से के वक़्त ग़ैज़ भी करना

    मुँह से कुछ बात तो निकलने दो

    सब तो क़ैदें थीं ज़िंदगी कैसी

    दम को तो जिस्म से निकलने दो

    मेहंदी मलते हो तुम जो ग़ैरों में

    कफ़-ए-अफ़्सोस हम को मलने दो

    ज़िंदे मुर्दे तो मुर्दे ज़िंदा हों

    फ़ित्ना-ए-हश्र को तो चलने दो

    चूँटे हाथों से क्यों छुड़ाते हो

    मार-ए-गेसू का सर कुचलने दो

    दिल पिसेगा ख़ुद उन का मिस्ल-ए-हिना

    लाश कुश्तों की तो कुचलने दो

    बोसे सेब-ए-ज़क़न के दो हम को

    शजर-ए-आरज़ू को फलने दो

    हाल कहता हूँ बे-क़रारों का

    दिल-ए-बेताब को सँभलने दो

    दिल हदफ़ होंगे आसमानों के

    नावक-ए-आह को तो चलने दो

    करो तर्क शग़्ल-ए-बोस-ओ-कनार

    दो घड़ी दिल ज़रा बहलने दो

    लाखों होंगे उसी अदा से शहीद

    ले के तलवार तो टहलने दो

    बोसे रुक रुक के दो वसलत में

    दिल के अरमान तो निकलने दो

    दम भी हो जाएगा हवा मेरा

    मुँह से हू तो मिरे निकलने दो

    हश्र बरपा करेंगे दीवाने

    इक ज़रा क़ब्र से निकलने दो

    शौक़ से चाक-चाक दिल को करो

    तेग़-ए-अबरू का वार चलने दो

    लौटते होंगे सैकड़ों बिस्मिल

    कू-ए-क़ातिल में तेग़ चलने दो

    देखो कहता हूँ हाल-ए-दर्द-ए-जिगर

    इक ज़रा दिल को तो सँभलने दो

    मेरे पहलू में भी कभी होगे

    दहर को करवटें बदलने दो

    हल्क़ रक्खेंगे दौड़ कर मुश्ताक़

    तेग़ काठी से तो निकलने दो

    बोसा देते ही फिर पड़ेगा तुम्हें

    दिल-ए-नादाँ को तो मचलने दो

    संग रखो मेरी छाती पर

    क़ब्र में करवटें बदलने दो

    'फ़ाख़िर' अश्कों से क्यों बुझाते हो

    आह-ए-सोज़ाँ से दिल को जलने दो

    स्रोत:

    कारनामा-ए-नज़्म (Pg. 177)

    • लेखक: फ़ाख़िर लखनवी
      • प्रकाशक: मुंशी नवल किशोर, लखनऊ
      • प्रकाशन वर्ष: 1889

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