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ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
एक रुख़्सार पे देखा है वो तिल हम ने भी
हो समरक़ंद मुक़ाबिल कि बुख़ारा कम है
बासिर सुल्तान काज़मी
ग़ज़ल
उसी फ़य्याज़ी का साया है मिरे लफ़्ज़ों पर
जिस ने बख़्शा है समरक़ंद ओ बुख़ारा तिरे नाम
ज़िया फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
ख़ुदा गर मुझ गदा को सल्तनत बख़्शे तो मैं यारो
ब-ख़ाल-ए-हिंदुअश बख़्शम समरक़ंद-ओ-बुख़ारा रा