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ग़ज़ल
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
चली अब गुल के हाथों से लुटा कर कारवाँ अपना
न छोड़ा हाए बुलबुल ने चमन में कुछ निशाँ अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
वक़्त है गर बुलबुल-ए-मिस्कीं ज़ुलेख़ाई करे
यूसुफ़-ए-गुल जल्वा-फ़रमा है ब-बाज़ार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जल गई शाख़-ए-आशियाँ मिट गया तेरा गुल्सिताँ
बुलबुल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब अब कहीं तेरा घर भी है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
न मैं दरिया न मुझ में ज़ोम कोई बे-करानी का
कि मैं हूँ बुलबुले की शक्ल में एहसास पानी का
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
ये ज़मज़मा तुयूर-ए-ख़ुश-आहंग का नहीं
है नग़्मा-संज बुलबुल-ए-रंगीं-नवा-ए-क़ल्ब