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ग़ज़ल
वही जोश-ए-हक़-शनासी वही अज़्म-ए-बुर्द-बारी
न बदल सका ज़माना मिरी ख़ू-ए-वज़ा-दारी
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
ज़मीं की तरह जब हासिल है क़ुदरत बुर्दबारी की
रहूँ ऐ 'जुर्म' क्यों गर्दिश में नाहक़ आसमाँ बन कर