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ग़ज़ल
शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
तेरी लटों में सो लेते थे बे-घर आशिक़ बे-घर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने
कैफ़ भोपाली
ग़ज़ल
गर्म दो-पहरों में जलते सेहनों में झाड़ू देते थे
जिन बूढ़े हाथों से पक कर रोटी फूल में ढलती थी
हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल
रहेगा बन के बीनाई वो मुरझाई सी आँखों में
जो बूढे बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे