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ग़ज़ल
क्या मुबारक है मिरा दस्त-ए-जुनूँ ऐ 'नासिख़'
बैज़ा-ए-बूम भी टूटे तो हुमा पैदा हो
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
हाँ गुलशन-ए-तलब की इन्हें बुलबुलें समझ
वीराँ-कदे में जिस्म के ये ख़्वाहिशों के बूम
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
मेरे नालों को तुम कहते हो ये कमज़ोर नाले हैं
इन्हीं नालों से चूतड़ आसमाँ के फाड़ डाले हैं
बूम मेरठी
ग़ज़ल
कहा करते हैं वालिद 'बूम' के जोश-ए-मोहब्बत में
नहीं मालूम किस जंगल में बर-ख़ुरदार बैठे हैं
बूम मेरठी
ग़ज़ल
अनादिल की सदा क्या बूम भी है जिस जगह अन्क़ा
'क़लक़' इस गुलशन-ए-वीराँ में अपना आशियाना है