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ग़ज़ल
घटा छाते ही जैसे धूप छट जाती है आँगन की
तुझे आते ज़रा देखा तो शर्माई उदासी है
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
अज़ीज़ नबील
ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-नावक-ए-ग़म 'ज़ौक़' से हो पूछते क्या
लब पड़े चाटते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर देखते हो
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
छटे जब बद-गुमानी के अंधेरे तब समझ पाए
कि तर्क-ए-इश्क़ से महरूम-ए-ने'मत हो गए हम तुम