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ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
दिल-ए-सोज़-आशना के जल्वे थे जो मुंतशिर हो कर
फ़ज़ा-ए-दहर में चमका किए बर्क़ ओ शरर हो कर
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
तुलू-ए-सुब्ह ने चमका दिए हैं अब्र के चाक
'नदीम' ये मिरा दामान-ए-मुद्दआ' ही न हो