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ग़ज़ल
न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके
न हिजरतों का 'अज़ाब सहते हुए मुसाफ़िर घरों को लौटे
हसन अब्बास रज़ा
ग़ज़ल
काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी