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ग़ज़ल
दिल हुआ वीराँ मता-ए-चश्म-ए-नम जाती रही
रफ़्ता रफ़्ता शोरिश-ए-तब-ए-अलम जाती रही
ख़ुर्शीदुल इस्लाम
ग़ज़ल
ज़मीन-ए-चश्म-ए-नम में हम को तेरा ख़्वाब बोना था
तिरी हर याद का मोती तो पलकों में पिरोना था
लुबना सफ़दर
ग़ज़ल
गुदाज़-ए-दिल मता-ए-चश्म-ए-नम तक बेच देते हैं
ये अहल-ए-होश उल्फ़त का भरम तक बेच देते हैं
मैकश बदायुनी
ग़ज़ल
अगर अपनी चश्म-ए-नम पर मुझे इख़्तियार होता
तो भला ये राज़-ए-उल्फ़त कभी आश्कार होता