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ग़ज़ल
तिश्ना तिश्ना से बदन में है शराबी नश्शा
चश्मा-ए-फ़ैज़ तिरी आँख से फिर जारी है
ख़ालिद मलिक साहिल
ग़ज़ल
चश्म-ए-फ़ैज़ और दस्त वो पारस-सिफ़त जब छू गए
मुझ को मिट्टी से उठाया और फ़लक पर कर दिया
क़ैसर हयात
ग़ज़ल
ग़म के भरोसे क्या कुछ छोड़ा क्या अब तुम से बयान करें
ग़म भी रास न आया दिल को और ही कुछ सामान करें
मीराजी
ग़ज़ल
'फ़ैज़' जब चाहा जो कुछ चाहा सदा माँग लिया
हाथ फैला के दिल-ए-बे-ज़र-ओ-दीनार से हम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फिर ज़बान-ए-इश्क़ चश्म-ए-ख़ूँ-फिशाँ होने लगी
फिर हदीस-ए-दिल सर-ए-महफ़िल बयाँ होने लगी
फ़ैज़ी निज़ाम पुरी
ग़ज़ल
ख़ून जब अश्क में ढलता है ग़ज़ल होती है
जब भी दिल रंग बदलता है ग़ज़ल होती है
अब्दुल मन्नान तरज़ी
ग़ज़ल
दामन दराज़ कर तो रहे हो दुआओं के
धब्बे भी हैं निगाह में अपनी क़बाओं के