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ग़ज़ल
चौदहवाँ साल उसे देता है मुज़्दा 'आलिम'
ले मुबारक हो कि अब तू मह-ए-कामिल होगा
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़ुशी का लम्हा रेत था सो हाथ से निकल गया
वो चौदहवीं का चाँद था अँधेरी शब में ढल गया