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ग़ज़ल
असर है जज़्ब-ए-उल्फ़त में तो खिंच कर आ ही जाएँगे
हमें पर्वा नहीं हम से अगर वो तन के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
राज़ इलाहाबादी
ग़ज़ल
नींद-भरी आँखों से चूमा दिए ने सूरज को और फिर
जैसे शाम को अब नहीं जलना खींच ली इस अंदाज़ में चुप
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
जज़्ब-ए-वहशत तिरे क़ुर्बान तिरा क्या कहना
खिंच के रग रग में मिरे नश्तर-ए-फ़स्साद आया
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तेग़-ए-क़ातिल को गले से जो लगाया 'मुज़्तर'
खिंच के बोली कि बड़े आए तुम अरमान भरे