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ग़ज़ल
तहतुश-शुऊर में है जो इक लम्हा-ए-ख़्याल
लफ़्ज़ों की सीढ़ियों से उतरता दिखाई दे
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब
ग़ज़ल
फ़ासला दैर-ओ-हरम के दरमियाँ रह जाएगा
चाक सिल जाएँगे ये ज़ख़्म-ए-निहाँ रह जाएगा