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ग़ज़ल
मटन और दाल की क़ीमत बराबर हो गई जब से
यक़ीं आया कि दोनों में ''हरारे'' एक जैसे हैं
सरफ़राज़ शाहिद
ग़ज़ल
रौशनी उस की डाक से आने में तो ज़माने लग जाते हैं
इस दौरान इक नूर की चिट्ठी कभी कभी दस्ती आती है
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
क्यूँ-कर करे न हर-दम क़त्-ए-मनाज़िल-ए-उम्र
तेग़-ए-ज़बाँ से अपनी चालाक ज़िंदगी है