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ग़ज़ल
ग़ज़ब है 'दाग़' के दिल से तुम्हारा दिल नहीं मिलता
तुम्हारा चाँद सा चेहरा मह-ए-कामिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मह-ए-चार-दह का आलम मैं दिखाऊँगा फ़लक को
अगर उस ने पर्दा मुँह से शब-ए-माहताब उल्टा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
बे-तकल्लुफ़ दाग़-ए-मह मोहर-ए-दहाँ हो जाएगा
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
क्यूँ लब पे मिरे ज़मज़मा-ए-सल्ल-ए-अला है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
हाकिम-ए-दिल बन गई हैं ये थियेटर वालियाँ
मैं लगाऊँगा गुल-ए-दाग़-ए-जिगर की डालियाँ