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ग़ज़ल
हम को अय्यार समझते हैं ये बे-मेहर 'निसार'
जो दग़ाबाज़ हैं सो यार हैं किन के उन के
मोहम्मद अमान निसार
ग़ज़ल
तुझे देता है बाज़ी ऐ 'मुहिब' बच जाइयो उस से
कि नट-खट उस के यार और वो दग़ाबाज़ एक घूना है
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
इस नए दौर के इंसानों की ग़ैरत को सलाम
ख़ुद दग़ाबाज़ समझते हैं दग़ाबाज़ मुझे