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ग़ज़ल
दहान-ए-हर-बुत-ए-पैग़ारा-जू ज़ंजीर-ए-रुस्वाई
अदम तक बेवफ़ा चर्चा है तेरी बेवफ़ाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हवा-ए-सुब्ह यक-आलम गरेबाँ चाकी-ए-गुल है
दहान-ए-ज़ख़्म पैदा कर अगर खाता है ग़म मेरा
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ध्यान आया जिस घड़ी उस के दहान-ए-तंग का
हो गया दम बंद मुश्किल लब हिलाना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
हुई बुलबुल सना-ख़्वान-ए-दहान-ए-तंग किस गुल की
कि फ़रवर्दी में ग़ुंचे का मुँह इतना सा निकल आया
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
दहान-ए-ज़ख़्म से कहते हैं जिन को मर्हबा बिस्मिल
वो ख़ंजर और होते हैं वो भाले और होते हैं
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
तह-ए-मशीर-ए-क़ातिल किस क़दर बश्शाश था 'नासिख़'
कि आलम हर दहान-ए-ज़ख़्म पर है रू-ए-ख़ंदाँ का
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला
दहान-ए-ज़ख़्म से ख़ूँ हो के हर्फ़-ए-आरज़ू निकला
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
बने ना-वाक़िफ़-ए-शादी अगर हम बज़्म-ए-इशरत में
दहान-ए-ज़ख़म-ए-दिल समझे जो देखा रू-ए-ख़ंदाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
थी न ख़िज़ाँ की रोक-थाम दामन-ए-इख़्तियार में
हम ने भरी बहार में अपना चमन लुटा दिया