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ग़ज़ल
अहमद सलमान
ग़ज़ल
मिरी ता'मीर में मुज़्मर है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दहक़ाँ की तरह दाना ज़मीन में न बो अबस
बौना वही जो तुख़्म-ए-अमल दिल में बोइए
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
रग-ए-लैला को ख़ाक-ए-दश्त-ए-मजनूँ रेशगी बख़्शे
अगर बोवे बजा-ए-दाना दहक़ाँ नोक निश्तर की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ब-ईं रिंदी 'मजाज़' इक शायर-ए-मज़दूर-ओ-दहक़ाँ है
अगर शहरों में वो बद-नाम है बद-नाम रहने दे
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
बर्क़ गिरती है तो ख़िर्मन को जला जाती है
कब उसे मेहनत-ए-दहक़ाँ की ख़बर होती है
अनवारूल हसन अनवार
ग़ज़ल
मैं हूँ बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-उफ़्तादा मैं मरदूद दहक़ाँ हूँ
गिरा हूँ उन की नज़रों से उठा ले जिस का जी चाहे
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
बने ना-वाक़िफ़-ए-शादी अगर हम बज़्म-ए-इशरत में
दहान-ए-ज़ख़म-ए-दिल समझे जो देखा रू-ए-ख़ंदाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
दिल में रंग-ओ-रोग़न-ए-दहक़ाँ का रहता है ख़याल
रोज़-मर्रा गाँव से आता है घी मेरे लिए
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
किया है बे-रिदा जिस ने मिरे दहक़ाँ की बेटी को
वतन के नाम-लेवा ग़मगुसारों की वो बेटी है
रशीद हसरत
ग़ज़ल
मेरी ज़बाँ पर मस्लहतों के पहरे हैं तो फिर क्या है
हक़ के अलम-बरदार हैं अब भी मज़दूर ओ दहक़ान मिरे
कौसर नियाज़ी
ग़ज़ल
मैं वो दहक़ान-ए-जुनूँ-ख़ेज़ हूँ जिस ने अपने
जिस्म के खेत में ज़ख़्मों की शजर-कारी की
लकी फ़ारुक़ी हसरत
ग़ज़ल
लहू पर अपने ही मौक़ूफ़ थी धरती की ज़रख़ेज़ी
सभी दहक़ाँ यहाँ खेतों को बंजर छोड़ जाते थे