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ग़ज़ल
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
उड़ाते हैं मज़े दुनिया के हम ऐ 'दाग़' घर बैठे
दकन में अब तो अफ़ज़लगंज अपनी ऐश मंज़िल है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
पेश-ए-ख़ुदा रोज़-ए-जज़ा मैं भी हूँ चुप क़ातिल भी चुप
गोया खड़े हैं बे-दहन एक इस तरफ़ एक उस तरफ़
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
हैबत-ए-शाह-ए-दकन से 'शाद' ये शोहरा है आज
काँपता निकला करे जेब-ए-सहर से आफ़्ताब