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ग़ज़ल
ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा
तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मेरे सब्र-ओ-दर-गुज़र को न समझना बुज़-दिली तुम
ये तुम्हें पड़ेगा महँगा जो दिमाग़ चल गया तो
सलाम नज्मी
ग़ज़ल
शिकवा-ए-दर-गुज़र-नुमा क्यूँ है कि हुस्न इश्क़ से
इतना तो बद-गुमाँ न था इतना तो सर-गराँ न था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तिरी गली से तिरे दर से हम तो गुज़रेंगे
तिरे मिज़ाज में गर दर-गुज़र नहीं तो न हो