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ग़ज़ल
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
क़ैद फिर क़ैद है ज़ंजीर बढ़ा दी है तो क्या
अरशद अब्दुल हमीद
ग़ज़ल
मैं समझता था दर-ओ-बाम कहाँ बोलते हैं
फिर तिरे बा'द खुला मुझ पे कि हाँ बोलते हैं
अक़ील अब्बास चुग़ताई
ग़ज़ल
फैले हुए हैं साए दर-ओ-बाम पर अभी
उभरी नहीं है अज़्मत-ए-नूर-ए-सहर अभी
क़ाज़ी सय्यद ख़ुर्शीदुद्दीन ख़ुर्शीद
ग़ज़ल
वही आहटें दर-ओ-बाम पर वही रत-जगों के अज़ाब हैं
वही अध-बुझी मिरी नींद है वही अध-जले मिरे ख़्वाब हैं
तारिक़ बट
ग़ज़ल
अभी महल के दर-ओ-बाम ना-मुकम्मल हैं
ये किस ने ख़्वाब से आ कर जगा दिया मुझ को
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
तुझ को मैं ढूँढता फिरता हूँ दर-ओ-बाम से दूर
अब तजल्ली-ए-दर-ओ-बाम से जी डरता है
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
ख़ाना-बर्बाद हूँ सहरा में बगूलों की तरह
सक़्फ़-ओ-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम से कुछ काम नहीं