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ग़ज़ल
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में
इलाही शुक्र करता हूँ तिरी दरगाह 'आली में