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ग़ज़ल
मौज-ए-बला दीवार-ए-शहर पे अब तक जो कुछ लिखती रही
मेरी किताब-ए-ज़ीस्त को पढ़िए दर्ज हैं सब सदमात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
वसी शाह
ग़ज़ल
शब की बे-अंत ज़ुल्मत से लड़ सकती है एक नन्ही सी लौ
राह भूले हुओं को है बाँग-ए-दरा रखना रौशन दिया