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ग़ज़ल
ऐ 'ग़ज़ल' तिरी आँखें ग़म-ज़दा हैं रातों में
रतजगों के मौसम में ख़्वाब-ए-सुब्ह-गाही क्या
ज़किया ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़्वाबों के ज़ख़्म आँख से रिसने लगे 'ग़ज़ल'
ये दर्द-ए-जाँ भी क़ल्ब-ए-हज़ीं के नहीं रहे
ज़किया ग़ज़ल
ग़ज़ल
देख 'ग़ज़ल' तेरा ये लहजा लोगों को मंज़ूर नहीं
दार-ओ-रसन तेरी क़िस्मत है सच का साथ निभाने में
ज़किया ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़्वाबों के ज़ख़्म आँख से रिसने लगे 'ग़ज़ल'
ये दर्द-ए-जाँ भी क़ल्ब-ए-हज़ीं के नहीं रहे
ज़किया ग़ज़ल
ग़ज़ल
ये फ़िक्र-ओ-फ़हम 'ग़ज़ल' मेरे मुस्त'आर नहीं
मैं अपनी ज़ात के 'ऐब-ओ-हुनर में ज़िंदा हूँ
ज़किया ग़ज़ल
ग़ज़ल
बहुत उदास है दार-ओ-रसन सुना है ग़ज़ल
उजालों के लिए इक सर तलाश करते हुए
डॉ. मुबश्शिरा सदफ़ ' ग़ज़ल'
ग़ज़ल
क़ाफ़ियों और रदीफ़ों में तो फँसने से रही
ऐसे थोड़े न ग़ज़ल होगी गिरफ़्तार-ए-इश्क़