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ग़ज़ल
याद क्या क्या लोग दश्त-ए-बे-कराँ में आए थे
रंग लेकिन कब ये चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ में आए थे
अहमद हमदानी
ग़ज़ल
इस दश्त-ए-बे-पनाह की हद पर भी ख़ुश नहीं
मैं अपनी ख़्वाहिशों से बिछड़ कर भी ख़ुश नहीं
ज़ीशान साहिल
ग़ज़ल
तिरी महफ़िल में दश्त-ए-बे-अमाँ ले कर नहीं आया
मैं अपने गहरे सन्नाटे यहाँ ले कर नहीं आया
अंजुम नियाज़ी
ग़ज़ल
हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या
वहशत में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
ये अपना शहर जो है दश्त-ए-बे-अमाँ ही तो है
इस ए'तिबार से दिल दर्द का मकाँ ही तो है