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ग़ज़ल
नोक-ए-मिज़्गाँ जब हुई सीना-फ़गारों से दो-चार
पारा-हा-ए-दिल से गुल-दस्ता बना कर ले गई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मुद्दत गुज़री दूर से मैं ने एक सफ़ीना देखा था
अब तक ख़्वाब में आ कर शब भर दरिया मुझ को डसता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
देखिए किस किस को डसता है ये जोड़ा साँप का
रिन्द लखनवी
ग़ज़ल
महकता था बदन हर वक़्त जिस के लम्स-ए-ख़ुशबू से
वही गुल-दस्ता दहलीज़-ए-ख़िज़ाँ पर छोड़ देना था
अंजुम इरफ़ानी
ग़ज़ल
मैं हूँ इक मजमा-ए-अहबाब का बिछड़ा गुलचीं
मुझ को गुल-दस्ता-ए-रंगीं न दिखाना हरगिज़