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ग़ज़ल
या ख़ला पर हुक्मराँ या ख़ाक के अंदर निहाँ
ज़िंदगी डट कर अनासिर के मुक़ाबिल आ गई
हफ़ीज़ होशियारपुरी
ग़ज़ल
ग़म ने हर इक रास्ते में खोल रक्खा था महाज़
हम भी चेहरे पर हँसी का ख़ोल ले कर डट गए
आनन्द सरूप अंजुम
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तब सैर देखे कोई बाहम लड़ाईयों के
खींचे हों वो तो तेग़ा और हम भी डट रहे हों